क्या है समान नागरिक संहिता, बीजेपी क्यों चाहती है इसे देश में लागू करना

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नई दिल्ली । केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने समान नागरिक संहिता पर कोई फैसला करने से पहले व्यापक विचार विमर्श की जरूरत का संकेत देते हुए सरकार ने विधि आयोग से इस मुद्दे का अध्ययन करने को कहा है। कानून मंत्रालय के विधिक विषयक विभाग ने आयोग से इस संबंध में रिपोर्ट भी देने को कहा है। कानून मंत्री डी वी सदानंद गौड़ा ने पहले कहा था कि इस मुद्दे को अध्ययन के लिए विधि आयोग के पास भेजा जा सकता है।

आमसहमति कायम करने के लिए विभिन्न पर्सनल लॉ बोर्डों और अन्य पक्षों के साथ व्यापक परामर्श किया जाएगा और इस प्रक्रिया में कुछ वक्त लग सकता है। उन्होंने कहा था, ‘‘…. यहां तक कि संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 44 भी कहते हैं कि एक समान नागरिक संहिता होनी चाहिए। उसके लिए व्यापक परामर्श करने की जरूरत है।’ उन्होंने कहा था कि निर्णय एक या दो दिन में नहीं लिया जा सकता। उसमें वक्त लगेगा। एक समान संहिता का क्रियान्वयन भाजपा के चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा है।

विधि आयोग से इस मुद्दे के अध्ययन के लिए कहा जाना इस मायने में अहम है क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में कहा था कि वह तीन बार तलाक की संवैधानिक वैधता पर निर्णय करने से पहले आम लोगों और अदालत में व्यापक बहस पसंद करेगा। कई लोगों की शिकायत है कि तीन बार तलाक बोलने की व्यवस्था का मुस्लिम पुरूष अपनी पत्नियों को मनमाने ढंग से तलाक देने के लिए दुरुपयोग करते हैं।

समान नागरिक संहिता का मसला अगर महज समान नागरिक कानूनों से जुड़ा होता तो वह इतना संवेदनशील और विवादित न होता। चाहे-अनचाहे इसका लेना-देना महिलाओं के साथ जुड़ता है और जोड़ा भी गया है। इस नागरिक संहिता का क्षेत्र परिवार के अंदर से है, और परिवार के अंदर महिलाओं को समान नागरिक- जो इस संहिता को लागू करने की बात कर रहे हैं- वे भी नहीं समझते, और जो इसकी मुखालफत यह कह कर कर रहे हैं कि यह उनके निजी कानून में हस्तक्षेप है । बीजेपी का तर्क है कि संविधान निर्माण के समय अनुच्छेद-44 के तहत कहा गया था कि ‘भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए राज्य एक समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा।’

क्या सोचता है संघ :

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के विचारक संदीप महापात्र ने बीबीसी को बताया कि जिस तरह भारतीय दंड संहिता और ‘सीआरपीसी’ सब पर लागू हैं, उसी तरह समान नागरिक संहिता भी होनी चाहिए, जो सबके लिए हो – चाहे वो हिन्दू हों या मुसलमान हों, या फिर किसी भी धर्म के माननेवाले क्यों ना हों । लेकिन सिविल क़ानून सबके लिए अलग अलग है । हिन्दुओं, सिखों और जैनियों के लिए ये अलग है , बौद्धों और पारसियों के लिए ये अलग है । जहाँ तक विवाह का सवाल है तो यह सिविल क़ानून पारसियों, हिन्दुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों के लिए ‘कोडिफाई’ कर दिया गया है । फिर एक ‘स्पेशल मैरिज एक्ट’ भी लाया गया है जिसके तहत सभी धर्म के अनुयायियों को अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह के लिए एक सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गई ।

जिस तरह भारतीय दंड संहिता और ‘सीआरपीसी’ सब पर लागू हैं, उसी तरह समान नागरिक संहिता भी होनी चाहिए, जो सबके लिए हो – चाहे वो हिन्दू हों या मुसलमान हों, या फिर किसी भी धर्म के माननेवाले क्यों ना हों ।

लेकिन सिविल क़ानून सबके लिए अलग अलग है. हिन्दुओं, सिखों और जैनियों के लिए ये अलग है , बौद्धों और पारसियों के लिए ये अलग है । जहाँ तक विवाह का सवाल है तो यह सिविल क़ानून पारसियों, हिन्दुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों के लिए ‘कोडिफाई’ कर दिया गया है । फिर एक ‘स्पेशल मैरिज एक्ट’ भी लाया गया है जिसके तहत सभी धर्म के अनुयायियों को अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह के लिए एक सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गई ।

बहस वहाँ शुरू होती है जहाँ हम मुसलामानों की बात करते हैं । 1937 से मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई रिफार्म नहीं हुए हैं. समान नागरिक संहिता की बात आज़ादी के बाद हुई थी, लेकिन उसका विरोध हुआ जिस वजह से उसे 44वें अनुच्छेद में रखा गया ।

हलाकि यह संभव है, हमारे पास गोवा का उदहारण भी है जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है । जब भी समान नागरिक संहिता की बात होती है, उस पर राजनीति शुरू हो जाती है । शायद यही कारण है कि कोई इसमें हाथ डालना चाहता है ।

विधि आयोग के पूर्व सदस्य तारिक महमूद का मत :

वहीँ विधि आयोग के पूर्व सदस्य तारिक महमूद कहते हैं कि ज़्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि संविधान में यूनिफार्म सिविल कोड के बारे में क्या कहा गया है । वो डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ़ स्टेट पॉलिसी यानी राज्यों के लिए नीति निदेशक तत्व की बात करते हैं । लेकिन यह नीति निदेशक तत्व संसद के लिए नहीं बल्कि राज्यों के लिए हैं. यह कहा गया है कि राज्य इस बात का प्रयास करेंगे कि समान नागरिक संहिता हो । इसका यह मतलब है कि जिस भी समुदाय के लिए क़ानून बने उसमे समानता होनी चाहिए. मगर मुस्लिम पर्सनल लॉ 1400 साल पहले बना था ।

इसे संसद ने नहीं बनाया । संसद ने हिन्दू सक्सेशन एक्ट बनाया है । सबसे ज़्यादा महिला विरोधी क़ानून वही है । इस क़ानून में कमी का एक उद्धरण यह है कि हिन्दू पुरूषों पर यह लाज़मी है कि वो अपने बूढ़े माँ बाप का भरण पोषण करें ।

मगर यह इस शर्त के साथ है कि माँ बाप हिन्दू हों, जबकि मुसलमान पुरूष पर यह तब भी अनिवार्य है अगर उसके माँ बाप मुसलामन ना भी हों । लिंग भेद हर क़ानून में है इसलिए ज़रूरी है कि क़ानूनों की समीक्षा हो । भारत विविधता का देश है इसलिए बेहतर होगा कि एक समान क़ानून की बजाय सभी क़ानूनों की समीक्षा की जाए और उन सब में समानता लाई जाए ।

(इनपुट जनसत्ता और बीबीसी से भी)

संकलन : राजा ज़ैद खान

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