सुप्रीमकोर्ट ने कहा “धर्म का हिस्सा होगा तो नहीं देंगे दखल”, पढ़िए पूरी बहस

सुप्रीमकोर्ट ने कहा “धर्म का हिस्सा होगा तो नहीं देंगे दखल”, पढ़िए पूरी बहस

नई दिल्ली। मुस्लिमो में तीन तलाक, एक से अधिक शादी और निकाह के तरीके पर सुनवाई कर रही सुप्रीमकोर्ट की बैंच ने साफ़ किया है कि यदि तीन तलाक धर्म का हिस्सा होगा तो नहीं देंगे दखल। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि तीन तलाक धर्म का हिस्सा नहीं है, तो इस सुनवाई जारी रहेगी।

10 दिन तक चलने वाली इस सुनवाई में यह तय किया जाएगा कि ट्रिपल तलाक धर्म का हिस्सा है या नहीं है। इस बीच कोर्ट ने तीन तलाक के खिलाफ याचिका डालने वालों और पक्ष में बोलने वालों को कथित तौर पर निर्देश दिए हैं। संविधान पीठ इस मसले के लेकर सात याचिकाओं पर सुनवाई करेगी।

संवैधानिक पीठ में हर धर्म के जज शामिल :
जजों की जो संवैधानिक पीठ इस मसले पर सुनवाई करेगी उसमें अलग-अलग धर्मों के जज शामिल हैं। पीठ के सदस्यों में सिख, ईसाई, पारसी, हिन्दू और मुस्लिम समुदाय से हैं। जिसमें चीफ जस्टिस जे. एस. खेहर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस आर. एफ. नरिमन, जस्टिस यू. यू. ललित और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर शामिल हैं। वहीँ इस मामले में अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी और वरिष्ठ वकील सलमान खुर्शीद भी संविधान पीठ की मदद करेंगे।

सुलह की कोशिश बिना तलाक वैध नहीं : सलमान खुर्शीद
तीन तलाक पर सुप्रीमकोर्ट में हो रही सुनवाई में शामिल कांग्रेस नेता और वकील सलमान खुर्शीद ने कहा कि अगर सुलह की कोशिश नहीं हुई हो तो तलाक वैध नहीं माना जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने रखे ये तीन सवाल:
-तलाक-ए बिद्दत यानी एक बार में तीन तलाक और निकाह हलाला धर्म का अभिन्न अंग है या नहीं?
-क्या इन दोनों मुद्दों को महिला के मौलिक अधिकारों से जोड़ा जा सकता है या नहीं?
-क्या कोर्ट इसे मौलिक अधिकार करार देकर कोई आदेश लागू करा सकता है या नहीं?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी पक्ष अपनी जिरह इन्हीं मुद्दों पर करेंगे।

पर्सनल ला बोर्ड की ओर से कपिल सिब्बल ने भी खुर्शीद का समर्थन किया कि ट्रिपल तलाक कोई मुद्दा नहीं है। खुर्शीद निजी तौर पर कोर्ट की मदद कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पूछा – ये पर्सनल ला क्या है? ये क्या इसका मतलब शरियत है या कुछ और?

पर्सनल ला बोर्ड की ओर से कपिल सिब्बल ने कहा, ये पर्सनल ला का मामला है। सरकार तो कानून बना सकती है लेकिन कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए। जस्टिस कूरियन ने कहा, ये मामला मौलिक अधिकारों से भी जुड़ा है।

सुनवाई के दौरान तीन तलाक को लेकर केंद्र सरकार ने कोर्ट के सामने कुछ सवाल रखे :
1. धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत तीन तलाक, हलाला और बहु-विवाह की इजाजत संविधान के तहत दी जा सकती है या नहीं ?
2. समानता का अधिकार और गरिमा के साथ जीने का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में प्राथमिकता किसको दी जाए?
3. पर्सनल लॉ को संविधान के अनुछेद 13 के तहत कानून माना जाएगा या नहीं?
4. क्या तीन तलाक, निकाह हलाला और बहु-विवाह उन अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत सही है, जिस पर भारत ने भी दस्तखत किये हैं?

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की दलील:
– ट्रिपल तलाक को महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन बताने वाले केंद्र सरकार का रुख बेकार की दलील है।
– पर्सनल लॉ को मूल अधिकार के कसौटी पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
– ट्रिपल तलाक, निकाह हलाला जैसे मुद्दे पर कोर्ट अगर सुनवाई करता है तो ये जूडिशियल लेजिस्लेशन की तरह होगा।
– केंद्र सरकार ने इस मामले में जो स्टैंड लिया है कि इन मामलों को दोबारा देखा जाना चाहिए ये बेकार का स्टैंड है।

ट्रिपल तलाक मामले में सुप्रीम कोर्ट में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने लिखित जवाब दाखिल कर कहा है कि
– ट्रिपल तलाक के खिलाफ दाखिल याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।
– मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत प्रोटेक्शन है उसे मूल अधिकार के कसौटी पर नहीं आंका जा सकता।
-कोर्ट पर्सनल लॉ को दोबारा रिव्यू नहीं कर सकती उसे नहीं बदला जा ससकता. कोर्ट पर्सनल लॉ में दखल नहीं दे सकती।
– मुस्लिम पर्सनल लॉ में एक बार में ट्रिपल तलाक, हलाला और बहु विवाह इस्लमिक जो इस्लामिक रिलिजन का महत्वपूर्ण पार्ट है और वह मुस्लिम पर्सनल लॉ के चारों स्कूलों द्वारा परिभाषित है।
– मुस्लिम पर्सनल लॉ संविधान के अनुच्छेद-25, 26 व 29 में प्रोटेक्टेड है और क्या इसका व्याख्या या रिव्यू हो सकता है ?
– संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का जहां तक सवाल है तो वह एग्जेक्युटिव के खिलाफ लोगों को अधिकार मिला हुआ है लेकिन इसे प्राइवेट पार्टी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं हो सकता।
– किसी व्यक्तिगत शख्स के खिलाफ इसे लागू नहीं कराया जा सकता. संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत जनहित याचिका का इस्तेमाल प्राइवेट शख्स के खिलाफ इस्तेमाल के लिए नहीं हो सकता क्योंकि ये मामला पर्सनल है।
– सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कई मामलों में ये व्यवस्था दे रखी है कि किसी व्यक्ति विशेष या आइडेंटिकल केस जूडिशियल रिव्यू नहीं हो सकता।
-सवाल था कि क्या बहुविवाह संविधान के अनुच्छेद 14 व 15 के खिलाफ है क्या एक तरफा तलाक लिया जाना समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है। एक से ज्यदा पत्नी रखा जा सकता है क्या ये क्रुअल्टी नहीं है। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ये मामला विधायिका का है. कोर्ट इस मालमे में विधान नहीं बना सकती।
– बोर्ड की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि संवैधानिक स्कीम के तहत जूडिशयिरी का महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन धर्म और धार्मिक कार्यक्रम को कोर्ट तय नहीं कर सकता।
– अगर किसी धार्मिक मसले पर विभेद होगा तो धार्मिक ग्रंथ व किताबों का सहारा लिया जाएगा्. धार्मिक सवाल पर कोर्ट के पास अपना विचार रखने का स्कोप नहीं है।
-इस्माम में शादी को सिविल कॉन्ट्रैक्ट माना जाता है. शरियत शादी को जीवन भर का साथ मानता है।
– इसे टूटने से बचान के तमाम प्रयास किए जाते हैं. लेकिन इसे अखंडनीय नहीं माना जाता और जबरन रहने के लिए मजबूर नहीं किया जाता।
-शादी के वक्त ही तलाक आदि के प्रावधान के बारे में पता होता है और शर्त मानने या न मानने के लिए पार्टी स्वतंत्र होता है।
– एक बार में तीन तलाक का जहां तक सवाल है तो ये अवांछनीय जरूर है लेकिन तीन तलाक से शादी खत्म हो जाती है. तीन तलाक कहने के बाद पत्नी का दर्जा खत्म हो जाता है।
-मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान के अनुच्छेद25 व 26 में प्रोटेक्ट किया गया है। – पर्सनल लॉ कल्चरल मुद्दा है और इसे प्रोटेक्शन दिया गया है। कोर्ट पर्सनल लॉ में दखल नहीं दे सकती।
– जहां भी दुनिया में पर्सनल लॉ में बदलाव हुआ है तो वह भारतीय समाजिक व सास्कृतिक परिस्थितियों से अलग है. भारतीय संदर्भ में उसे देखना होगा। अगर उसमें बदलाव हुआ तो इस्लाम धर्म मानने वाले लोगों के साथ न्याय नहीं होगा।

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